फिर मुझे लगता था कि यह तो शिवजी की बारात है। कभी ऐसी ही बारात लेकर शिवजी अपनी उमा को लेने दक्ष के पास गए होंगे। और दक्ष उखड़े ही होंगे। कहां राजशाही, कहां शिव और कहां ये बारात! वह भोलेबाबा की बारात थी। उसमें भोले लोगों की भरमार थी। वे जो थे सो थे। उन्हें बनना, सजना, संवरना नहीं आया। सभ्य’होना नहीं आया। भोले के साथ भोले भोले।
राजीव कटारा, वरिष्ठ पत्रकार/नयी दिल्ली
रात में नींद क्यों नहीं उचट रही? एक सुबह सोचता हूं। सावन शुरू हुए कई दिन हो गए। माते रोज अपने शिव पर बेल पत्र चढ़ा रही हैं। कहीं कोई शोर नहीं। इन दिनों में तो गजब का शोर होता था। इतना शोर कि नींद को उचटना ही था। यों मुझे याद नहीं कि उसे बहुत ऐंजोय किया हो, लेकिन गजब का मिस कर रहा हूं उसे।
मेरा घर दिलशाद गार्डन में है। वह जीटी रोड पर है। बस एक सड़क अंदर ही है। यही तो अपने कांवड़ियों का पसंदीदा रूट है। शायद सबसे सीधा और छोटा रास्ता होने के नाते। सालों पहले जब पहली बार मेरी नींद खुली थी। तो चौंक उठा था कि ये ओले ओले …की धुन पर कौन थिरक रहा है? कौन सा बैंड सड़क पर धमाल मचाए हुए है।
तब तक नींद उड़ चुकी थी। अपनी सोच पर मुसकराया था कि जिसे मैं ‘ओले ओले’समझ रहा हूं वह‘भोले-भोले’है। और ये कांवड़ियों का मेला चल रहा है। नींद उचटने पर कौन नहीं उखड़ता? लेकिन उन दिनों अक्सर खीझता रहता था। महज शोर ही परेशान नहीं करता था। न जाने कौन सा रास्ता बंद हो जाए! कहां से घूम कर आना पड़े। ऑफिस जाने या घर आने में कितनी देर लग जाए। जरा सी गाड़ी किसी को टच हो गई तो कुछ भी हो सकता था। कहां किसीकी पिटाई हो जाए। कह नहीं सकते। आपका रास्ता उनका हो जाता था। उनकी मरजी से सड़क चलती थी। कभी-कभी तो वह आतंक की ही पूरी दुनिया लगती थी।
फिर मुझे लगता था कि यह तो शिवजी की बारात है। कभी ऐसी ही बारात लेकर शिवजी अपनी उमा को लेने दक्ष के पास गए होंगे। और दक्ष उखड़े ही होंगे। कहां राजशाही, कहां शिव और कहां ये बारात! वह भोलेबाबा की बारात थी। उसमें भोले लोगों की भरमार थी। वे जो थे सो थे। उन्हें बनना, सजना, संवरना नहीं आया। सभ्य’होना नहीं आया। भोले के साथ भोले भोले। दुनिया को भोलाभाला बनाने की एक कोशिश। सब तो समझदार और चतुर बनाने में लगे हैं। बाबा भोला बनाने में लगे हैं। अब जो सभ्य नहीं होते वे अराजक होते ही हैं।
एक अलग किस्म का कार्निवाल है यह। ब्राजील का कार्निवाल बेहद इलीट लगता है। यह आम आदमी का कार्निवाल है। किसी इलीट को उसमें शामिल होते देखा नहीं। ‘अनपढ़, जाहिल, गंवार लोगों का मजमा है।‘ खास लोगों को तो उसमें अराजकता ही नजर आएगी ही न। एक बला है जो बिना बवाल निबट जाए। यों इलीट की बारात भी तो हम झेलते हैं। वह भी रास्ता रोकती है। घंटों जाम लगा देती है। इतना शोर होता है कि आप कुछ कह-सुन नहीं सकते। अगर घर के आसपास है तो सो नहीं सकते। किसीकी गाड़ी का डेक बज रहा है। किसीके यहां पार्टी हो रही है।
कुछ भी सुन नहीं पड़ रहा। लेकिन वह हमें उतना परेशान नहीं करता, जितना कांवड़िए करते हैं। वह सभ्य लोग कर रहे हैं। समरथ को नहिं दोष गुसाईं। मेरा मानना है कि ज्यादातर कांवड़िए भोले-भाले ही होते हैं। एक खास किस्म का ट्रीटमेंट मिलता है, तो थोड़ा बौरा से जाते हैं। उसी बौराहट को हम झेल नहीं पाते। रही बात गुंडागर्दी की। इतनी बड़ी तादाद होगी तो थोड़ी बहुत गड़बड़ी होगी ही। उसे देखना ही तो प्रशासन का काम है। चंद दिन भी हमसे बर्दाश्त नहीं होते। हम उन्हें कोसने का कोई मौका नहीं चूकते। कोरोना ने कांवड़ियों की तीर्थयात्रा पर रोक लगा दी। उनके शिवालय सूने पड़े हैं।
गोमुख, गंगोत्री, ऋषिकेश और हरिद्वार से गंगा का जल लाकर अपने-अपने शिवालय में चढ़ाने का आनंद इस महामारी ने छीन लिया। जीटी रोड सूना है। वहां जैसे कुछ हो ही नहीं रहा। भोले का मेला कोरोना की भेंट चढ़ गया है। कोई बात नहीं कि अगर गंगा जल अपने शिव को नहीं चढ़ा पा रहे। यह भी भोले की ही इच्छा मान लो। आखिर उनकी गंगा इतनी साफ अरसे से नहीं नजर आई। अपनी गंगा को साफ देखने की इच्छा होगी भोले बाबा की। गंगा मां को न छेड़ें, यह चाहते हों वह। अब जो भी जल है, उसे ही पवित्र जल मान कर अपने भोले पर चढ़ा दो। कल त्रयोदशी है। भोले आपके पास ही हैं। उनको जल तो चढ़ा दो। गंगा जल अगली बार सही। भोले हैं सब समझते हैं। असल मामला तो भावनाओं का है। मन चंगा तो कठौती में गंगा है न। हे भोलेनाथ। जय भोलेबाबा।