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कांवड़ियों की याद...इस बार कहीं कोई शोर नहीं


नोटबंदी में उसने मेरे सफर को आसान बना दिया

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 23 Feb 2017   Posted by Admin

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नोटंबदी में घुमक्कड़ी-अलका कौशिक की जुबानी

वसुंधरा, गाजियाबाद की रहने वाली अलका कौशिक, पर्स में महज 80 रुपये और 3 हजार किलोमीटर का सफ़र। अकेले ही नहीं, बल्कि अपनी मम्मी के साथ। अलका एक ब्लॉगर है, ट्रैवल ब्लॉग्स लिखती हैं। ट्रैवल ब्लॉग माने सैर-सपाटे की कहानी उन्हीं की जुबानी। जिसे पढ़कर या तो आपका मन घूमने का करेगा या फिर ब्लॉग पढ़कर ही लगेगा कि आपने उस जगह को शब्दों से ही घूम लिया है।

अलका कौशिक/ वसुंधरा, गाजियाबाद

”मैडम परवाह नहीं, आप बोलो किधर जाने का है? मैं टैक्सी दूंगा आपको … परवाह नहीं”
”हंपी जाना है… मगर पैसे नहीं है ….. कार्ड लोगे?”
 
“मैडम, जब लौटोगे शाम को तो कार्ड दे देना, दोस्त का पेट्रोल पंप है, उधर ही पेमेेंट करने का।”
 
9 नवंबर की रात सिंधानूर के रामू और मेरे मोबाइल फोन के सिग्नलों पर सवार होकर हवाओं में गुम हो गई संवाद लहरियां कुछ ऐसी थीं। एक तो वैसे ही बिंदास तबीयत, उस पर ‘वरी नॉट, टेंशन नॉट’ का महामंत्र थमाने वाला सिंधानूर का वो टैक्सी आॅपरेटर एक झटके में मेरी हर परेशानी से मुझे मुक्त कर चुका था।
 
उस रात जब भारत सरकार ने 1000/रु और 500/रु के नोटों को बेमानी करार दिया था, मैं घर से पूरे 1850 किलोमीटर दूर कर्नाटक में रायचुर जिले के सिंधानूर तालुका में थी।
 
और अगले दिन (10 नवंबर) 70 बरस की मां के साथ मैं अपने होटल से पूरे 78 किलोमीटर दूर हंपी (Hampi) के खंडहरों में भटक रही थी। हजारा राम के दरबार से हंपी के एकमात्र जीवंत मंदिर विरुपाक्ष तक, हंपी के प्राचीन बाजारों के अवशेषों से लेकर जनाना महल तक गुजरते वक़्त से खोखले पड़ चुके दरीचों-दीवारों-मूर्तियों-मंडपों की मेरी यादों के लैंडस्केप में जमाखोरी जारी थी।
 
विट्ठल मंदिर में रूसी टूरिस्टों का एक बड़ा ग्रुप टहलता दिखा तो उनसे पूछे बगैर नहीं रह सकी कि नोटों को लेकर हुई सरकारी घोषणा से उनकी यात्रा पर क्या असर पड़ा है। इस ग्रुप की इंटरप्रेटर कुछ देर रूसियों के साथ बातचीत के बाद मुझसे मुखातिब थी ‘कल ये लोग गोवा में थे, कुछ रेस्टॉरेंट में खाने-पीने के बाद बिल भुगतान के दौरान कुछ परेशानी हुई थी इन्हें, लेकिन यहां कोई दिक्कत नहीं हुई है… हमारा टूर पहले से बुक है, और लोकल टूर आॅपरेटर तथा गाइड सारी देखभाल कर रहे हैं।”
 
नरसिंह मंदिर के बाहर एक इस्राइली टूरिस्ट को देखा तो यों ही पूछ लिया कि नोटों की मारा-मारी का शिकार तो नहीं होना पड़ा है उसे। उसने आव देखा न ताव और अपने इस आॅटो ड्राइवर को आगे कर दिया, यह कहते हुए कि हर मुसीबत इसने दूर कर दी है। अब मैं आॅटोवाले से मुखातिब थी, पूछा कौन सा जादू मंतर फेरा है तुमने तो जानते हैं मासूमियत से क्या कहा उसने? ‘इन लोगों के पास तो बहुत बड़े बड़े नोट होते हैं, उसे दिक्कत तो होनी ही थी। इसलिए आज यहां इसका टिकट मैंने खरीद लिया है, और अब हंपी घुमा रहा हूं। आगे देखेंगे मुझे कैसे मेरे पैसे मिल पाते हैं … लेकिन ये तो करना ही था, आखिर हमारा मेहमान है वो।”
 
घर से हजारों मील दूर के फासले पर खड़ी विरासत से रूबरू होने का जो मौका हाथ आया था वो बहुत कीमती था, लिहाजा एक-एक पल को सहेजना था और उसका पूरा फायदा उठाना था। एक सफर में रहते हुए अगले सफर का षडयंत्र रचना मेरा पुराना शगल है, उस रोज़ भी वही कर रही थी। आइहोले के चट्टानी मंदिरों, गुफाओं, दुर्गा मंदिर, मंदिरों के मंडपों, अर्धमंडपों को अपने अनुभव का हिस्सा बनाने वाली मेरी योजनाओं को भंग कर देने के लिए काफी थी फोन की घंटी। उस तरफ जर्नलिस्ट पति की आवाज़ थी और उस आवाज़ में लिपटा था प्रधानमंत्री की उस ऐतिहासिक घोषणा का लब्बो-लुबाब जिसने 8 नवंबर की उस रात से आज तक देश को झिंझोड़ डाला है। जोड़-घटा में मेरा दिमाग न पहले कभी चला है और न उस रोज़ कुछ पल्ले पड़ा, बस इतना समझ में आया कि जेब में बची लगभग सारी पूंजी कल के उजाले में बिन मोल हो जाएगी। खिड़की से बाहर ताकने पर दो-एक एटीएम दिखाए दिए, बिल्कुल खाली। कर्नाटक के उस कस्बे में शायद उस रात उस वक्त तक किसी को भी इल्म नहीं था कि अगले कुछ रोज़ क्या कुछ घटने वाला है।
 
पैसे निकालने का कोई तुक नहीं था, आखिर वो मशीन वही नोट उगलती जो चलन से बाहर हो गए थे। मैंने अपने वॉलेट में सजे रंग-बिरंगे कार्ड छूए, और सोच लिया अब आगे का सफर इनके हवाले।
 
बहरहाल, दक्षिण भारत में पहले यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल से रूबरू होने का मेरा अहसास नोटबंदी के उस पहले जिक्र पर भारी पड़ा। गर्वोल्लास से भरी थी मैं। मंजिल आने को थी, मैंने जेब टटोली, पांच सौ के पांच नोट और अस्सी रुपए छुट्टे और कुछ चिल्लर का शोर। टैक्सी बिल 2,900/ रु था, होटल में अपने कमरे की तरफ दौड़ी, मां से 400/रु लिए और अपने उन 5 नोटों से छुटकारा पाया जो उस रात के बाद बेकार थे। एक राहत की सांस ली मैंने, वो नोट बला बन चुके थे, इसलिए उनसे तो खुद को मुक्त करना ही था। अब नई चिंता सामने थी कि आगे का पूरा हफ्ता काम कैसे चलेगा। लेकिन 8 नवंबर की उस रात मेरी थकान इस चिंता पर भारी पड़ी और यह सोचकर सोने चली गई कि अगले दिन देखा जाएगा।
 
आइहोले और उसके स्मारकों, मंदिरों, गलियों-कूचों में भटकने का दिन तय था। लेकिन जेब खाली थी, Ola और Uber एॅप सुन्न पड़ी थीं। सवारी डॉट कॉम को फोन लगाया, वो भी गुम। अब मेरे पास अपने होटल में ही बैठने का विकल्प बचा था। कुछ आलस, थोड़ी थकान और खाली जेब का वो मेल अजब था। मैंने दिनभर होटल में बिता दिया।
 
इस बीच, मीडिया में सरगर्मियां शुरू हो चुकी थी। http://www.indiatimes.com/ से फोन आया कि सफर में रहते हुए नए हालातों से कैसे तालमेल बैठा रही हूं? होटल के खाली कॉरिडोर में चहलकदमी करते हुए तसल्ली से अपना हाल बयान कर दिया। और अगले दिन कुछ यों छप गया था हमारा किस्सा –
http://www.indiatimes.com/news/india/travellers-stranded-with-no-change-in-their-pockets-india-is-offering-jugaad-265178.html
 
उम्मीद थी कि शायद शाम तक कुछ हालात बदलेंगे। लेकिन देर शाम तक भी कहीं से कोई खबर नहीं मिली, मैंने इसे अगले दिन के लिए नई स्ट्रैटेजी बनाने का इशारा समझा। वापस रामू को फोन लगाया। उसके बाद जो घटा वो मेरी सफरी जिंदगी का बेहद कीमती अनुभव है।
 
बेशक, मैं देश में सदियों पुरानी विरासतों से मिल रही थी लेकिन इस दौर में, ऐसे समय में जबकि रातों-रात हमारी जेब में बंद पूंजी बेकार हो चुकी थी, कोई था जो मुझे ब्लैक मेल करने की बजाय मेरे सफर को आसान बना रहा था। बेशक, एक दिन मैं बेकार कर चुकी थी, लेकिन वो सबक का दिन था। मैंने अपने फेसबुक स्टेटस में इसका जिक्र किया तो दिल्ली से भतीजी ने यह संदेश व्हाट्सएॅप किया। ‘बुआ, मेरे पास बहुत सारे पैसे हैं, आपको भेज दूं?’

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